- अघोरेश्वर के अवतरण दिवस पर पूज्य बाबा ने कहा अघोर पंथ के लिए जाति पाति धर्म विशेष एवम छुआ छूत जैसी भावनाये अनुचित
- प्रियदर्शी राम जी ने अघोर पंथ में नशे के प्रचलन को मिथ्या प्रचार बताते हुए कहा नशे के खिलाफ अनवरत जारी है अभियान
रायगढ़ :- पूज्य अघोरेश्वर के अवतरण दिवस पर आशीर्वचन के दौरान पूज्य पाद प्रियदर्शी राम जी ने कहा महापुरुषो का सानिध्य कई जन्मों के पुण्य प्रताप से मिलता है संतो का सानिंध्य मानव जीवन के लिए सौभाग्य भी है। परंपरा गत विद्यालय की शिक्षा में अघोरेश्वर की रुचि नहीं रही इसलिए 9 वर्ष की उम्र में ही घर परिवार का त्याग करने वाले अघोरेश्वर ने अत्यधिक कठोर साधना के जरिए अर्जित शक्तियों से समाज के वंचितों शोषितो दिन दुखियो का उचित मार्गदर्शन किया। उन्हें यह आभाष हो गया था कि स्कूली शिक्षा से मानव कल्याण की बुनियाद नही रखी जा सकती इसलिए उन्होंने सांसारिक बंधनों का परित्याग करते हुए साधना के मार्ग का चयन किया। पूर्ण सिद्धि के बाद उन्होंने सड़क किनारे बैठे दुखी कुष्ठ रोगियों से इलाज नही कराने का कारण पूछा तो रोगियों ने बताया कि इस लाइलाज रोग को छुआछूत मानते हुए परिजनों ने बहिष्कृत कर दिया और इलाज के अभाव में रोगियों के आमने जीवन मरण का संकट उत्पन्न हो गया है। समाज से ऐसे उपेक्षित तिरस्कृत रोगियों को गले लगाते हुए अघोरेश्वर ने रोगियों को पारिवारिक माहौल देने के लिए कृष्ठ सेवा आश्रम की स्थापना की वे स्वय रोगियों की सेवा करते थे। इस सेवा के जरिए उन्होंने सीधे तौर पर यह संदेश दिया कि समाज ने जिन्हे बहिष्कृत किया उनको अघोरेश्वर ने गले लगाया पीड़ित मानव सेवा की इससे बड़ी मिशाल नही हो सकती। यह कोई चमत्कार नही था बल्कि अघोरेश्वर ने कठिन समस्या को देख समाधान का चिंतन ही किया और पूरे विश्व के सामने अदभुत मानव सेवा की एक मिशाल पेश की।
समाज के मध्य वे यह संदेश देने में कामयाब रहे कि कुष्ठ रोगी घृणा के पात्र नही है। उनके द्वारा निर्मित दवा से आज भी कुष्ठ रोगियों का इलाज जारी है और 1961 के दौरान स्थापित सर्वेश्वरी समूह द्वारा कुष्ठ रोगी की अदभुत मानव सेवा को ग्रीनिज वर्ल्ड बुक में भी रिकॉर्ड मानते हुए दर्ज किया गया। संतो का हृदय दूसरों का दुख पिघल जाता है। उस दौर में समाज में फैली विकृतियों आडंबरों की वजह से आम लोग परेशान थे नवयुवकों में भटकाव आ रहा था जिसे अघोरेश्वर ने समझते हुए नवयुवकों को संकल्प बद्ध किया कि वे राष्ट्र को प्रथम समझेंगे, नशे का सेवन नहीं करेंगे, बिना तिलक दहेज के विवाह करेंगे, अनैतिक कार्य नहीं करेंगे,संस्था से जुड़कर संस्था के विचारों को आत्मसात कर उसे जीवन में उतारेंगे विद्या अध्ययन के बाद आत्मनिर्भर बनेंगे और समाज की सेवा हेतु अपना जीवन समर्पित करेंगे। युवकों के संकल्प बद्ध होने का सार्थक परिणाम भी मिला। उसे दौर में दहेज प्रथा हावी थी दहेज की वजह से गरीब मध्य वर्गीय परेशान थे अघोरेश्वर ने दहेज की इस कुरीति को महसूस किया इसके निदान के लिए वैचारिक आंदोलन की शुरुआत करते हुए समाज में व्याप्त दहेज के आडंबर को दूर किया।
अघोरेश्वर ने बिना दहेज के आश्रम में विवाह की परिपाटी शुरू की। पूज्य बाबा प्रियदर्शी राम ने कहा खर्चीली शादी के जरिए समाज मे स्थान बनाने की बजाय गरीब एवम मध्यम वर्गीय लड़कियों के सामूहिक विवाह में राशि खर्च की जानी चाहिए। ऐसे श्रेष्ठ कर्मो के साथ साथ सत्य के अनुसरण एवम गुरु के विचारों को जीवन में आत्मसात करने से मनुष्य समाज में स्थापित हो सकता है। अघोरेश्वर महाप्रभु जीवन में पंचशील के पालन को महत्व देते रहे। संत महात्माओं के पास बहुत से लोग पहुंचते हैं लेकिन उनके विचारों में ठहराव नहीं होने से संतो का सानिध्य निरर्थक हो जाता है संतो की विचारधारा को जीवन में आत्मसात करने मात्र से मनुष्य के विचारों में ठहराव आसानी से आ सकता है। जिस तरह एक नदी निरंतर बहते हुए समुद्र में विलीन होकर समुद्र बन जाती है। इस तरह मनुष्य संत की विचारधारा के अनुरूप अपने नाम गोत्र के मोह को छोड़कर जीवन में कर्म करता रहे तो स्वयं को परम ब्रह्म से जोड़ सकता है। बाबा प्रियदर्शी राम ने कहा जीवन में ज्ञान के बोध मात्र से पूर्णता का बोध हो जाता है हम सभी परम ब्रह्म के अंश है ।जिसने स्वयं को आत्म स्वरूप में जान लिया है उसके ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं। दृष्टिकोण में बदलाव आने से आचार व्यवहार का तौर तरीका बदल जाता है।वाणी में मधुरता आ जाने से वह सभी को सम भाव से देखता है।
संतों की विचारधारा को जीवन में आत्मसात करते हुए उसे जीवन में उतारने की आवश्यकता बताते हुए पूज्य बाबा ने कहा अज्ञानता की वजह मनुष्य रस्सी को भी सांप समझ लेता है लेकिन महापुरुषों के सानिध्य मात्र से जीवन के भ्रम और अज्ञानता को दूर किया जा सकता है । अघोरेश्वर से प्रतिदिन बहुत से लोग मिलते थे जिसमे अमीर गरीब प्रधानमंत्री राष्ट्रपति सभी लोग मिलकर मार्गदर्शन लेते थे। उनके मार्गदर्शन से बहुत से लोगों का कल्याण संभव हुआ है । संतो के पास अच्छे एवं बुरे सभी प्रकार के लोग आते है। संत बुरे लोगो में भी बदलाव लाता है बहुत से लोगो ने अपने जीवन मे बदलाव भी लाया। संतों के सानिध्य से निंदनीय व्यक्ति भी प्रशंसनीय हो जाता है। किसी भी वस्तु अथवा व्यक्ति को देखने का नजरिया उसे अच्छा या बुरा बनाता है जैसे गोबर अथवा मल को खराब माना जाता है लेकिन खेतों में जाकर वही गोबर एवम मल उपजाऊ खाद का कार्य करता है ऐसी वनस्पतिया जो हमें अन्न देती है उसके लिए गोबर अथवा मल पोषण बन जाता है।किसी भी चीज के सही जगह सदुपयोग से लाभ मिलता है ।पर्यावरण संरक्षण की दिशा में आज सभी मां के नाम पर वृक्ष लगाने की अपील कर रहे है जबकि 50 साल पहले अघोरेश्वर ने पर्यावरण संरक्षण हेतु बुजुर्गो के नाम पर पांच पांच वृक्ष लगाने का विचार समाज के सामने रखा था।जैसे एक लोहा अपने समान गुण धर्म के चुंबक के संपर्क में आकर अपने अंदर चुंबकीय शक्ति पैदा कर लेता है । लेकिन लोहे के अतिरिक्त अन्य कोई धातु में यह शक्ति पैदा नही कर सकती। संतों के सानिध्य में उनके गुण धर्म के अनुसार रहने मात्र से ही जीवन परिवर्तित हो जाता है और उसके अंदर चुंबकीय शक्ति पैदा हो जाती है। मनुष्य व पशु के मध्य अंतर समझते हुए पूज्य बाबा ने कहा मनुष्य दुखी परेशान अथवा प्रताड़ित होने पर प्रतिकार अथवा सवाल करता है लेकिन पशु प्रतिकार नहीं करता।
मनुष्य जीवन मिलने के बाद भी जीवन कष्टों से भरा हुआ क्यों है ? यह हमे जानना चाहिए। इंद्रिय सुख की वजह से मनुष्य भोग विलास का जीवन जीता है इस जन्म में किए गए पाप कर्म की वजह से उसे बार बार मनुष्य योनि में कर्म फल पाने के लिए आना पड़ता है। इंद्रिय सुख भोगो में लगा मनुष्य ऊपर उठने का प्रयास नहीं करता फिर उसे शरीर धारण करना पड़ता है और कष्ट होता है। जन्म मृत्यु बुढ़ापा रोग संसार के चार कष्टों को शरीर से जुड़ा हुआ बताते आत्मा को इन कष्टों से परे बताया। बार-बार शरीर मिलने पर ये कष्ट अवश्य मिलेंगे। इंद्रियों की तृप्ति से मिलने वाले सुख को मृग तृष्णा की तरह निरूपित करते हुई कहा ऐसे इंद्रीय सुख के पीछे भागते-भागते पूरा जीवन निरर्थक हो जाता है। मनुष्य हृदय में मौजूद नाना प्रकार की इच्छाओं को पूरा करने नियम विरुद्ध स्वय को विवश मानकर कार्य करता है। इसलिए ऐसी इच्छाओं को दूर करना प्रथम कर्तव्य है ।इंद्रियों के नियंत्रित होने से मात्र से ही मन हमारे अनुकूल होगा अन्यथा मन अनुकूल नहीं होने पर इंद्रियां बाहर की ओर आकर्षित करेगी। अंतर्मुखी होने पर मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध हो सकता है। इंद्रियों को भोगों से बचने के लिए निरंतर अभ्यास की सलाह देते हुए कहा ध्यान के जरिए आत्मा को समझा जा सकता है। प्राणों की उपासना को सर्वोत्तम बताते हुए कहा अघोरेश्वर ने परंपराओं से हटकर कार्य किया।
एक औघड़ लीक से हटकर का उल्लेख करते हुए कहा औघड़ पंथ से उन्होंने बहुत सी कुरूतियो को बाहर कर दिया। अघोर पंथ में नशा सेवन की अनिवार्यता जैसा मिथ्या प्रचार आज भी जारी है लेकिन आने वाली पीढ़ी को नशे के दुष्प्रभाव से बचाने के लिए अग्रेश्वर ने नशा सेवन को अनुचित मानते हुए नशा सेवन को प्रतिबंधित किया। अघोर पीठ से जुड़े सभी शाखाओं में नशा पूर्ण प्रतिबंध है।अघोरेश्वर ने शमशान की साधना को आश्रम की साधना बनाया।अघोर पंथ में विचित्र रूप धारण कर लोगों को भयभीत करना चमत्कार दिखाना अंधविश्वास फैलाना अघोर पंथ में पूर्णतया प्रतिबंधित है। अघोर पंथ कभी धन एकत्र नहीं करता बल्कि भिक्षा टन के दौरान जीवन यापन के लिए आवश्यक खाने योग्य अन्य ग्रहण करता है समाज में व्याप्त बहुत सी कुरूतियों को पूज्य अघोरेश्वर ने समय रहते दूर किया यही वजह है कि इस परंपरा से जुड़ने के लिए लाखों लोग पूरे देश में प्रेरित हो रहे हैं और अघोर पंथ से जुड़े आश्रमों के जरिए जीवन जीने के लिए एक अच्छा मार्गदर्शन हासिल कर रहे है।
ईश्वर की सत्ता को सर्वव्यापी बताते हुए पूज्य बाबा प्रियदर्शी ने कहा दृष्टि के अभाव की वजह से हमें ईश्वरीय सत्ता का दृष्टिगोचर नहीं होता क्योंकि हमारे पास सम्यक दृष्टि का अभाव है जैसे मिट्टी से बने घड़े को देखते समय मिट्टी दिखाई देती है लेकिन कुम्हार नही नजर आता उसकी कला नजर आती है। सृष्टि भी उसी तरह है ब्रह्म द्वारा निर्मित सृष्टि में विभिन्न चीज दिखाई देती है लेकिन ईश्वर का बोध नहीं होता संतों ने अपने जीवन में आने वाले कठिनाइयों का दृढ़ता पूर्वक सामना किया है आश्रम जाति पंथ धर्म छुआछूत को कदापि नहीं मानता। प्राणों की उपासना का संबंध में उल्लेख करते हुए पूज्य बाबा प्रियदर्शी ने कहा कि उपासना प्राणों की ही होती है जैसे मनुष्य के प्राण निकलने पर उसे जमीन में सुला दिया जाता हैं प्राणों के जाते ही मनुष्य की यह देह अग्नि को समर्पित कर दी जाती है। मंदिर में भी जो मूर्ति स्थापित है उसकी प्राण प्रतिष्ठा के बाद ही पूजा होती है। सबसे दुखद पहलू यह है कि पूजनीय प्राणों के संबंध में मनुष्य जीते जी कुछ भी नही जान पाता।